Saturday, January 31, 2009

भिटौली के बारे मे


मान्यताओं और परम्पराओ का प्रदेश है उत्तराखंड। पहाड़ी प्रदेश में हर कदम पर बोली और दस कदम में भाषा बदल जाती है। लेकिन फिर भी कुछ परम्पराए,तीज-त्यौहार ऐसे है, जो न केवल ख़ुद को बचाए हुए है बल्कि समाज को एक सूत्र में बांधे रखने का भी काम कर रहे है। इन्ही परम्पराओं में से एक परम्परा है भिटौली। यहाँ हर साल चैतके महीने में पिता व भाई द्वारा बहिन व बेटी को भिटौली दिए जाने की परम्परा सैकडो सालो से चली आ रही है। और आज भी गावो में महिलाए चैत के महीने का बेसब्री से इंतजार करती है। उत्तराखंड में अतीत से लेकर आज तक भिटौली दिए जाने की प्रथा किसी न किसी रूप में चली आ रही है। अधिकांश पहाढ़ वासी आज भी अपनी बेटी या भाई अपनी बहिन के घर जाकर या मनीऔदर द्वारा भिटौली भेजते है। भिटौली देने का यह सिलसिला चैत के महीने भर चलता रहता है, लेकिन कई मौको पर यह बैशाख और जेठ के महीने तक भी चलता है। पर्वतीय प्रदेश दूर दराज गावो में लोग कपड़े, मिठाई, फल व विभिन्न पकवान बनाकर भिटौली डीहै। भिटौली शब्द भैटसे ही बना है। साल भर में इस महीने माँ-बाप, भाई अपनी बेटी -बहिन से अवश्य भैट करता है। कुमाऊ हो या गढ़वाल प्रारम्भ में पूरे उत्तराखंड की स्थिती ही काफी दयनीय रही है।
बुजुर्गो का कहना है किएक समय ऐसा भी हा जब यहाँ के लोगो को पेट भरने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी। हालात यह थे कि लोगो को भुना हुआ खाना साल में ख़ास त्योहारों पर ही मिल पता था। साल में एक दिन अपनी लड़की की खुसी के लिए मनाया जाने वाला यह त्यौहार धीरे-धीरे भिटौली के रूप में प्रसिध हो गया। बसंत ऋतू के उदासी वाले दिनों के बाद हिमालय की गोद में बसे इस प्रदेश में यह सौगातमय त्यौहार विशेष श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इन दिनों जहा एक ओर पहाडो की हसीं वाडिया हरियाली की चादर ताने रहती है वही देशी विदेशी परिंदे भी इस त्यौहार का स्वागत करते है । पर्वतीय भावनाओ के संगम वाले इस पर्व पर भाई अपनी बहिन और पिता अपनी पुत्री के लिए प्रेम का जो उपहार ले जाता है , वह पर्वतीय सौगात की अनुपम भैट बन जाती है, एक इसी भैट जिसमे सदियों की परम्परा समाई रहती है । लेकिन अफ़सोस की बात यह है आधुनिकता की चकाचौध और भौतिकवाद के नशे में यह त्यौहार धीरे-धीरे दम तोड़ता जा रहा है। अपनी संस्कृति और परम्परा से बिमुख लोग फैशन व धनालोभ के चलते इस पवित्र मर्यादित त्यौहार को महत्व नही दे रहे है जो पर्वतीय संस्कृति ओर परम्परा के लिए गहन चिंतन का विषय है।
खास टूर पर पहाडो से पलायन कर चुके लोग तो इस परम्परा को भूल चुके हैफिर भी सुदूर छेत्रो में यह त्यौहार आज भी उतना ही महत्व रखता है। कहना यह है कि अपनी बेटी व बहिन के लिए चेत के महीने में वगर हम एक दिन का समय नही निकाल पते तो निश्चित ही इस परम्परा का अस्तित्व खतरे में पढ़ जाएगा।

भिटौली आने वाली है दोस्तो

फिर बुला रहा है पहाढ़, मैंने वादा किया था भूली से, और कहा था दीदी से की इस बार का भिटौली देने मैही आऊंगा पहाढ़ सिर्फ़ भिटौली के लिए muje नही bulata बल्कि अब to holi, diwali, tij twohaar मेरा aagan मेरे बिना ही kush rahata हैbachpan की याद के बाद बात achanak भिटौली मे गई। bachpan मे माँ के साथ बड़ा sa jhola ले jakar दीदी के ghar भिटौली dene jata tha,us jhole mei khane pine se lekar gudh, misri, gheu ka atta, chawal ka atta, tel, bhoto, mithai, kele, seb sabhi kuch to hta tha, ek tarah se kaha jai to choti si duniya samai rahi ti us भिटौली wale jhole mai. jyada samay nahi hua abhi mai mahaj 28 hi saal ka hu lekin waqt itna badal gaya ki ab भिटौली bhi badal gai hei, ab meri maa ye saara saman nahi le gati wo didi aur choti bahin jiski bhi saadi ho chuki hei दोनों को ही पैसे देकर santust कर कर देती haiअसल mei मेरी माँ ki भी arse से नही आती mamajee money order करके ही farj aada कर लेते है

उत्तराखंड की खोज


यह बात आपको चौका सकती है की उत्तराखंड प्रान्त की कल्पना आज से कई सौ साल पहले सिख धर्म द्वारा की गई थी। एक पोथी (ग्रन्थ) मे लिखे गुरु नानक देव जी के उदगारों से यह बात सिद्ध हुई है। यह पोथी उत्तराखंड के कासीपुर नगर मे ननकाना साहिब गुरूद्वारे के मुख्य ज्ञानी मंजीत सिंह जी के पास है। मंजीत सिंह को यह पोथी आज से लगभग २५ साल पहले उनके नाना ज्ञानी श्री संत प्रेम सिंह जी ने पंजाब प्रान्त मे दी थी। इस पोथी मे श्री गुरु नानक देव का पूरा जीवन वृतांत लिखा गया है। यह पोथी संवत १५९७ इसवी मे ज्ञानी बाबा पैडामौखे द्वारा लिखित मूल ग्रन्थ का प्रकाशित रूप है। इस ग्रन्थ को बाबा ने गुरु अंगद देव जी महाराज और भाई बालाजी महाराज की मौजूदगी मे लिखा था। मूल ग्रन्थ का प्रकाशित रूप यह पोथी लगभग सौ-सवा सौ साल पुरानी है। इस पोथी के पृष्ठ संख्या ९७ मे वर्णन किया गया है कि जब गुरु नानक देव जी भाई लालो देव जी के सानिध्य से १५९७ मे वापस उत्तराखंड आए तो इसी दौरान उन्होंने अलग उत्तराखंड प्रान्त कि कल्पना की। दौरान गुरुनानक देव एक माह कश्मीर,बंगाल और १५ दिन विदेश भी गए। इस ग्रन्थ के अनुसार उत्तराखंड प्रान्त कि कल्पना १५९७ मे ही कर ली गई थी।
ननकाना साहिब गुरूद्वारे के ग्रंथी ज्ञानी श्री मंजीत सिंह जी बताते है कि सिख धर्म के प्रथम गुरु नानक देव जी आज से कई सौ वर्स पूर्व इस स्थान मे आए थे। उनके अनुसार गुरु नानक देव जी उत्तराखंड के अनेक स्थानों मे घूमने,ठहरने व विश्राम करने के साथ- साथ काशीपुर मे भी रुके थे। जिस स्थान पर नानक देव ने विश्राम किया था उसी स्थान पर वर्तमान में गुरुद्वारा बना है। मान्यता है कि जिस समय नानक देव काशीपुर मे विश्राम कर रहे थे उसी समय पास मे ही बह रही नदी विकराल रूप में बह रही थी। गुरुजी के शिष्यों ने उनक्से नदी के प्रवाह को कम करने का आग्रह किया जिसपर गुरुजी ने एक धेला नदी कि और फेका। इसके बाद नदी का विकराल रूप संत हो गया और नदी का रुख भी बदल गया। इसके बाद इस नदी का नाम धेला नदी हो गया। इस घटना का उल्लेख उत्तराखंड के इतिहासकारों ने भी किया है।
आज जबकि इस इस पोथी द्वारा यह बात सिद्ध होने पर कि इस राज्य की कल्पना १९५७ मे ही कर ली गई थी। जबकि राज्य के नाम और गठन को लेकर कुछ राजनीतिक डालो में घमासान आज भी जारी है।