Tuesday, April 7, 2009

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Saturday, April 4, 2009

मतदान जरूर करे


हर पाँच साल बाद होने वाला लोकतंत्र का उत्सव एक बार फिर करीब है, सभी लोग अलग अलग शक्लो में इस उत्सव की तय्यारियो में लगे हुए है। कुछ नेता बनकर तो कुछ कार्यकर्ता और समर्थक बनकर, मेरी चिंता इन लोगो को लेकर नही है, मेरी चिंता उनको लेकर है जो न तो किसी पार्टी के समर्थक है न कार्यकर्ता यहाँ तक की ये लोग वोट देने भी नही जाते। इन लोगो को निर्वाचन आयोग पप्पू कहता है। असल में ये लोग पप्पू तो नही है हां ये वोट नही देते। इनमे से कई को लगता है किसे वोट दे सब चोर है, और कई की कोई राय ही नही है, लेकिन सायद बदलाव का रास्ता मतदान से ही निकलेगा इसलिए वोट जरूर डाले।

Saturday, February 7, 2009

पीछे छूट गई बाखली


बाखली का सरोकार पहाड़ से है जहा बसते है पहाडी। पहाड़ में बसने का ही जरिया है बाखली। बाखली जहा रहते है लोग जहा बसता है ग्राम समाज। बहुत से लोग जो बाखली से परिचित नही होंगे उनके लिए तो यह महज एक शब्द है लेकिन जो बाखली में रहते है उनके लिए यह एक छोटा सा देश होता है, अपनी सरकार, अपना शासन, काका-काकी, दादा-भौजी, इजा-बोजू और भी गाँवके कई रिश्ते नाते जिनसे कसकर बंधी होती है बाखली। बाखली का मतलब सिर्फ़ घर या पड़ोस नही होता, बाखली पहाड़ मे ग्राम समाज कि सबसे छोटी इकाई होती है, यहाँ पंचायतो कि तरह चुनाव तो नही होते लेकिन यहाँ एक घोषित अनुशासन जरुर होता है।
सच कहे तो बाखली और कुछ नही बस पहाड़ के ढलवा छतो वाले मकानों का एक सिलसिला होती है। दूर से देखने पर बाखली किसी सौकार का घर मालूम होती है, लेकिन असल में घरो के इस सिलसिले मे बिरादरों के कई परिवार रहते है। एक घर से मिलाकर दूसरा घर इस तरह से बनाया जाता है कि तीन दिवार लगाई और दूसरा घर तैयार, आम तौर पर बाखली तब बसती ही चली जाती है जब एक भाई से दूसरा भाई और पिता से बेटे अलग घर बसाते है।
बाखली भले ही एक भाई के दुसरे से या बेटो के पिता से अलग होने पर फलती फूलती हो लेकिन इससे इसका महत्व कम नही होता, क्योकि बाखली मे रहने वाले नाती नातिन तो आमा बुबू कि गोद मे ही खेलते है, इस आगन से उस आगन खेलते खेलते बच्चे कब जवान हो जाते है किसी हो पता भी नही चलता, जाडो के दिनों मे आगन मे बंधे जानवर पुवाल बिछाकर बैठे आमा बुबू ये सिर्फ़ बाखली मे ही होता है, कही आगन के किनारे पर बहु नाती को नहला रही है, तो कही बर्तन माजने कि आवाज। बाखली कि जिंदगी कुछ एसी है कि एक घर में छाछ बनी तो सबके गले से रोटी उतर जायेगी। इसी तरह से नौले धारे का ठंडा पानी एक घर में आया तो सबको मिलेगा। अगर एक घर कि गाय दूध देना बंद कर दे तो कई घरो से दूध आना सुरु हो जाता है और यह सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक गाय न ब्याह जाए। इसी तरह सुख दुःख बाटते हुए चलती है बाखली एसा नही है कि बाखली में लडाई कभी नही होती खेत कि मेड, गाय कि गौसाला , सब्जी का खेत किसी भी सवाल पर रंडी पात्तर हो सकती है।
लेकिन इन सब के बाबजूद बाखली तो बाखली ही है, जो गाँव मे रहा हो वही इसे समझ सकता है। लेकिन अब इस तरह से बाखली का बसना और आबाद होना गुजरे ज़माने कि बात हो गई है। अब तो पैसो से तय होता है कों कहा रहेगा, अगर किसी के पास थोड़ा ज्यादा पैसा है तो वह खेत मे और बेहतर पक्का मकान बना लेता है, और ज्यादा है तो शहर मे, अब बाखली सिर्फ़ उनके लिए है जो किसी कारण पैसा नही जोड़ पाए। लेकिन प्यार कभी ख़तम नही होता ना आज भी बाखली मे रहने वाले लोग उसी तरह से रहते है।

Friday, February 6, 2009

उत्तराखंड आन्दोलन का अमर सपूत निर्मल पंडित

अलग उत्तराखंड राज्य के लिए पाँच दशक तक चले संघर्ष के यू तो हजारो सिपाही रहे है, जो समय- समय पर किसी न किसी रूप में अलग राज्य के लिए अपनी आवाज बुलंद करते रहे। लेकिन इनमे से कुछ नाम ऐसे है जिनके बिना इस लडाई की कहाणी कह पाना संभव नही है।निर्मल कुमार जोशी 'पंडित' एक ऐसा ही नाम है। निर्मल का जन्म सीमांत जनपद पिथोरागढ़ की गंगोलीहाट तहसील के पोखरी गाव में श्री इश्वरी दत्त जोशी व श्रीमती प्रेमा देवी के घर १९७० में हुआ था।
जैसा कि कहा जाता है पूत के पाव पालने में ही दिख जाते है, वैसा ही कुछ निर्मल के साथ भी था। उन्होंने छुटपन से ही जनान्दोलनों में भागीदारी शुरू कर दी थी। १९९४ में राज्य आन्दोलन में कूदने से पहले निर्मल शराब माफिया व भू माफिया के खिलाफ निरंतर संघर्ष कर रहे थे। लेकिन १९९४ में वे राज्य आन्दोलन के लिए सर पर कफ़न बांधकर निकल पड़े। राज्य आन्दोलन के दौरान निर्मल के सर पर बंधे लाल कपड़े को लोग कफ़न ही कहा करते थे। आंदोलनों में पले बड़े निर्मल ने १९९१-९२ में पहली बार पिथोरागढ़ महाविद्यालय में महासचिव का चुमाव लड़ा और विजयी हुए। इसके बाद निर्मल ने पीछे मूड कर नही देखा और लगातार तीन बार इसी पद पर जीत दर्ज की। तीन बार लगातार महासचिव चुने जाने वाले निर्मल संभवतः अकेले छात्र नेता है। छात्र हितों के प्रति उनके समर्पण का यही सबसे बड़ा सबूत है। इसके बाद वे पिथोरागढ़ महाविद्यालय के अध्यक्स भी चुने गए।
निर्मल ने १९९३ में नशामुक्ति के समर्थन में पिथोरागढ़ में एक एतिहासिक सम्मलेन करवाया था, यह सम्मलेन इतना सफल रहा था कि आज भी नशा मुक्ति आन्दोलन को आगे बड़ा रहे लोग इस सम्मलन कि नजीरेदेते है। १९९४ में निर्मल को मिले जनसमर्थन को देखकर शासन सत्ता भी सन्न रह गई थी, इस दुबली पतली साधारण काया से ढके असाधारण व्यक्तित्व के आह्वान पर पिथोरागढ़ ही नही पुरे राज्य के युवा आन्दोलन में कूद पड़े थे। पिथोरागढ़ में निर्मल पंडित का इतना प्रभाव था कि प्रशासनिक अधिकारी भी उनके सामने आने से कतराते थे। जनमुद्दों कि उपेक्षा करने वाले अधिकारी सार्वजनिक रूप से पंडित का कोपभाजन बनते थे।
राज्य आन्दोलन के दौरान उत्तराखंड के अन्य भागो कि तरह ही पिथोरागढ़ में भी एक सामानांतर सरकार का गठन किया गया था, जिसका नेतृत्व निर्मल ही कर रहे थे। कफ़न के रंग का वस्त्र पहने पंडित पुरे जिले में घूम घूम कर युवाओ में जोश भर रहे थे। राज्य आन्दोलन के प्रति निर्मल के संघर्ष से प्रभावित होकर केवल नौजवान ही नही बल्कि हजारो बुजुर्ग और महिलाए भी आन्दोलन में कुढ़ पड़ी, यहाँ तक कि रामलीला मंचो में जाकर भी वे लोगो को राज्य और आन्दोलन कि जरुरत समझाते थे। पिथोरागढ़ के थल, मुवानी, गंगोलीहाट, बेरीनाग, मुनस्यारी, मदकोट, कनालीछीना, धारचुला जैसे इलाके जो अक्सर जनान्दोलनों से अनजान रहते थे, राज्य आन्दोलन के दौरान यहाँ भी धरना प्रदर्शन और मशाल जुलूस निकलने लगे। इस विशाल होते आन्दोलन से घबराई सरकार ने निर्मल को गिरफ्तार कर फतेहपुर जेल भेज दिया। राज्य प्राप्ति के लिए चल रहा तीव्र आन्दोलन तो धीरे-धीरे ठंडा हो गया लेकिन जनता के लिए लड़ने की निर्मल कि आरजू कम नही हुई। इसी दौरान हुए जिला पंचायत चुनावों में निर्मल भी जिला पंचायत सदस्य चुने गए, राज्य आन्दोलन के लिए चल रहा जुझारू संघर्ष भले ही थोड़ा कम हो गया था लेकिन खनन और शराब माफिया के खिलाफ उनका संघर्ष निरंतर जारी था। २७ मार्च १९९८ को शराब की दुकानों के ख़िलाफ़ अपने पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने पिथोरागढ़ जिलाधिकारी कार्यालय के सामने आत्मदाह किया। बुरी तरह झुलसने पर कुछ दिनों पिथोरागढ़ में इलाज के बाद उन्हें दिल्ली ले जाया गया। लगभग दो महीने जिंदगी की ज़ंग लड़ने के बाद आख़िर निर्मल को हारना पड़ा, १६ माय १९९८ को उत्तराखंड का यह वीर सपूत हमारे बीच से विदा हो गया। निर्मल कि शहादत के बाद हालाँकि यह सवाल अभी जिन्दा है कि क्या उसे बचाया जाती सकता था। सवाल इसलिए भी कि क्योकि यह आत्मदाह पूर्व घोषित था।
निर्भीकता और जुझारूपन निर्मल पंडित के बुनियादी तत्व थे, उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन माफिया के ख़िलाफ़ समर्पित कर दिया, वे कभी जुकने को राजी नही हुए, यही जुझारूपन अंत में उनकी शहीदी का भी कारण बना। अब जबकि ९ नवम्बर २००० को अलग राज्य उत्तराखंड का गठन भी हो चुका है। जिस राज्य के गठन का सपना लेकर निर्मल शहीद हो गए वही राज्य अब माफिया के लिए स्वर्ग साबित हो रहा है। शराब और खननं माफिया तो पहले से ही पहाढ़ को लूट रहे थे अब जमीन माफिया नाम का नया अवतार राज्य को खोखला कर रहा है। इसे में भला निर्मल की याद नही आएगी तो कौन याद आएगा। निर्मल का जीवन उत्तराखंड के युवाओं के लिए हमेशा ही प्रेरणा स्रोत रहेगा।

Monday, February 2, 2009

ये तो अंधेर है

इन दिनों पूरे देश में आगामी लोकसभा चुनाओ की तय्यारिया जोरो से चल रही है तो भला अपना उत्तराखंड भी कहा पीछे रहने वाला है। यहाँ भी चुनाव की दस्तक सुनाई देने लगी है। एक ओर जहा चुनाव आयोग,शासन- प्रशासन के साथ मिलकर मतदाता सूचि को अन्तिम रूप देने और चुनाव सम्बन्धी अन्य तय्यारियो में लगा हुआ है वही राजनीतिक दल भी अपने-अपने गोटे फिट करने में जुट गए है। बसपा के बाद अब भाजपा ने भी पांचो लोकसभा लिए अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए है, इधर केन्द्र में सत्ता की कमान संभाल रही कांग्रेस फिलहाल प्रत्याशी घोषित नही कर पाई है। खैर जिस दिलचस्प बात का जिक्र में यहाँ करने जा रहा हूँ उसका ताल्लुक कांग्रेस से है भी नही लेकिन भी यह सत्ता और व्यवस्था का सवाल तो है ही, दोस्तों गौर फरमाए अगर आपको याद होगा तो पिछले हफ्ते तक बीजेपी की ओर से टिहरी सीट का टिकेट एक बार फिर राजघराने के ही किसी चिराग को ही दिए जाने की बात हो रही थी, हालाँकि पिछले चुनाव में भी बीजेपी ने इस सीट से राजघराने पर ही दाव लगाया था लेकिन कांग्रेस के विजय बहुगुणा के आगे राज परिवार की चली और राजा मनुजेन्द्र शाह को हार का मुँह देखना पढ़ा। इस बार भाजपा ने इस सीट पर निशाने बाज जसपाल राणा को अपना उम्मीदवार बनाया है, वैसे जसपाल भाजपा के खेवनहार राजनाथ सिंह के रिश्तेदार भी है वरना ये तो सब जानते है कि खेलो और फिल्मो के सितारे राजनीति की बारीकिया कम ही समझ पाते है हां चुनाव जीतने कि गारंटी दी जा सकती है, लेकिन इससे जनता का जो नुक्सान होगा उसकी चिंता किसे है। फिर वापस चलते है राजघराने कि ओर इस बार बीजेपी टिहरी सीट से पूर्व महारानी टीका रानी लक्ष्मी शाह को अपना उम्मीदवार बनाना चाहती थी, इसके पीछे रानी की कोई प्रतिबद्धता या राजनीतिक अनुभव नही था बल्कि बीजेपी कि नजर रानी के बहाने उन हजारो नेपाली मूल के वोटरों पर थी जो कभी नेपाल कि राजकुमारी रही टिका रानी को अपना समर्थन दे सकते थे, लेकिन एन वक्त पर बीजेपी को अपने कदम वापस लेने पड़े असल में हुआ यह कि जिस रानी के पीछे पूरी बीजेपी लट्टू हो रही थी वह तो अब तक भारत कि नागरिक तक नही है, रानी ने विवाह के
दशको बाद तक भारत की नागरिकता नही ली है, और अब राजपरिवार का कहना है कि रानी की नागरिकता की प्रक्रिया चल रही है, एक ओर तो रानी देश की नागरिक तक नही है ओर दूसरी ओर टिहरी जिला प्रशासन की मेहरबानी तो देखो यहाँ रानी का नाम पिछले कई साल से वोटर लिस्ट मई दर्ज है, अब इस मामले के सामने आने के बाद जिला प्रशासन की आफत आ गई है, टिहरी की डीएम सौजन्या का कहना है की बिना नागरिकता के ही मतदाता सूची शामिल करना ग़लत है, इस तरह से देखा जाय तो यह मामला दोहरी नागरिकता का भी है,देश का संभिधान किसी को भी दोहरी नागरिकता की इजाजत नही देता लेकिन नेपाल की नागरिकता ओर भरत में मतदाता क्या यह मामला इस दायरे से बाहर का है, लेकिन राजघरानों पर तो इस देश के कानून लागू ही नही होते, अब सवाल यह है जब रानी इस देश की नागरिक ही नही थी तो फिर उसे मतदाता कैसे बनाया गया, साथ ही यह भी कीकिन के सहयोग से यह संभव हुआ। टिहरी जिला प्रशासन जो इस मामले में चूक कबूल चुका है,क्या राजपरिवार या अन्य लोगो के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही कर पायेगा, नही तो उस कार्यवाही का क्या मतलव जो बंग्लादेसियो ओर नेपालियों के ख़िलाफ़ की जाती है.

Saturday, January 31, 2009

भिटौली के बारे मे


मान्यताओं और परम्पराओ का प्रदेश है उत्तराखंड। पहाड़ी प्रदेश में हर कदम पर बोली और दस कदम में भाषा बदल जाती है। लेकिन फिर भी कुछ परम्पराए,तीज-त्यौहार ऐसे है, जो न केवल ख़ुद को बचाए हुए है बल्कि समाज को एक सूत्र में बांधे रखने का भी काम कर रहे है। इन्ही परम्पराओं में से एक परम्परा है भिटौली। यहाँ हर साल चैतके महीने में पिता व भाई द्वारा बहिन व बेटी को भिटौली दिए जाने की परम्परा सैकडो सालो से चली आ रही है। और आज भी गावो में महिलाए चैत के महीने का बेसब्री से इंतजार करती है। उत्तराखंड में अतीत से लेकर आज तक भिटौली दिए जाने की प्रथा किसी न किसी रूप में चली आ रही है। अधिकांश पहाढ़ वासी आज भी अपनी बेटी या भाई अपनी बहिन के घर जाकर या मनीऔदर द्वारा भिटौली भेजते है। भिटौली देने का यह सिलसिला चैत के महीने भर चलता रहता है, लेकिन कई मौको पर यह बैशाख और जेठ के महीने तक भी चलता है। पर्वतीय प्रदेश दूर दराज गावो में लोग कपड़े, मिठाई, फल व विभिन्न पकवान बनाकर भिटौली डीहै। भिटौली शब्द भैटसे ही बना है। साल भर में इस महीने माँ-बाप, भाई अपनी बेटी -बहिन से अवश्य भैट करता है। कुमाऊ हो या गढ़वाल प्रारम्भ में पूरे उत्तराखंड की स्थिती ही काफी दयनीय रही है।
बुजुर्गो का कहना है किएक समय ऐसा भी हा जब यहाँ के लोगो को पेट भरने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी। हालात यह थे कि लोगो को भुना हुआ खाना साल में ख़ास त्योहारों पर ही मिल पता था। साल में एक दिन अपनी लड़की की खुसी के लिए मनाया जाने वाला यह त्यौहार धीरे-धीरे भिटौली के रूप में प्रसिध हो गया। बसंत ऋतू के उदासी वाले दिनों के बाद हिमालय की गोद में बसे इस प्रदेश में यह सौगातमय त्यौहार विशेष श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इन दिनों जहा एक ओर पहाडो की हसीं वाडिया हरियाली की चादर ताने रहती है वही देशी विदेशी परिंदे भी इस त्यौहार का स्वागत करते है । पर्वतीय भावनाओ के संगम वाले इस पर्व पर भाई अपनी बहिन और पिता अपनी पुत्री के लिए प्रेम का जो उपहार ले जाता है , वह पर्वतीय सौगात की अनुपम भैट बन जाती है, एक इसी भैट जिसमे सदियों की परम्परा समाई रहती है । लेकिन अफ़सोस की बात यह है आधुनिकता की चकाचौध और भौतिकवाद के नशे में यह त्यौहार धीरे-धीरे दम तोड़ता जा रहा है। अपनी संस्कृति और परम्परा से बिमुख लोग फैशन व धनालोभ के चलते इस पवित्र मर्यादित त्यौहार को महत्व नही दे रहे है जो पर्वतीय संस्कृति ओर परम्परा के लिए गहन चिंतन का विषय है।
खास टूर पर पहाडो से पलायन कर चुके लोग तो इस परम्परा को भूल चुके हैफिर भी सुदूर छेत्रो में यह त्यौहार आज भी उतना ही महत्व रखता है। कहना यह है कि अपनी बेटी व बहिन के लिए चेत के महीने में वगर हम एक दिन का समय नही निकाल पते तो निश्चित ही इस परम्परा का अस्तित्व खतरे में पढ़ जाएगा।

भिटौली आने वाली है दोस्तो

फिर बुला रहा है पहाढ़, मैंने वादा किया था भूली से, और कहा था दीदी से की इस बार का भिटौली देने मैही आऊंगा पहाढ़ सिर्फ़ भिटौली के लिए muje नही bulata बल्कि अब to holi, diwali, tij twohaar मेरा aagan मेरे बिना ही kush rahata हैbachpan की याद के बाद बात achanak भिटौली मे गई। bachpan मे माँ के साथ बड़ा sa jhola ले jakar दीदी के ghar भिटौली dene jata tha,us jhole mei khane pine se lekar gudh, misri, gheu ka atta, chawal ka atta, tel, bhoto, mithai, kele, seb sabhi kuch to hta tha, ek tarah se kaha jai to choti si duniya samai rahi ti us भिटौली wale jhole mai. jyada samay nahi hua abhi mai mahaj 28 hi saal ka hu lekin waqt itna badal gaya ki ab भिटौली bhi badal gai hei, ab meri maa ye saara saman nahi le gati wo didi aur choti bahin jiski bhi saadi ho chuki hei दोनों को ही पैसे देकर santust कर कर देती haiअसल mei मेरी माँ ki भी arse से नही आती mamajee money order करके ही farj aada कर लेते है

उत्तराखंड की खोज


यह बात आपको चौका सकती है की उत्तराखंड प्रान्त की कल्पना आज से कई सौ साल पहले सिख धर्म द्वारा की गई थी। एक पोथी (ग्रन्थ) मे लिखे गुरु नानक देव जी के उदगारों से यह बात सिद्ध हुई है। यह पोथी उत्तराखंड के कासीपुर नगर मे ननकाना साहिब गुरूद्वारे के मुख्य ज्ञानी मंजीत सिंह जी के पास है। मंजीत सिंह को यह पोथी आज से लगभग २५ साल पहले उनके नाना ज्ञानी श्री संत प्रेम सिंह जी ने पंजाब प्रान्त मे दी थी। इस पोथी मे श्री गुरु नानक देव का पूरा जीवन वृतांत लिखा गया है। यह पोथी संवत १५९७ इसवी मे ज्ञानी बाबा पैडामौखे द्वारा लिखित मूल ग्रन्थ का प्रकाशित रूप है। इस ग्रन्थ को बाबा ने गुरु अंगद देव जी महाराज और भाई बालाजी महाराज की मौजूदगी मे लिखा था। मूल ग्रन्थ का प्रकाशित रूप यह पोथी लगभग सौ-सवा सौ साल पुरानी है। इस पोथी के पृष्ठ संख्या ९७ मे वर्णन किया गया है कि जब गुरु नानक देव जी भाई लालो देव जी के सानिध्य से १५९७ मे वापस उत्तराखंड आए तो इसी दौरान उन्होंने अलग उत्तराखंड प्रान्त कि कल्पना की। दौरान गुरुनानक देव एक माह कश्मीर,बंगाल और १५ दिन विदेश भी गए। इस ग्रन्थ के अनुसार उत्तराखंड प्रान्त कि कल्पना १५९७ मे ही कर ली गई थी।
ननकाना साहिब गुरूद्वारे के ग्रंथी ज्ञानी श्री मंजीत सिंह जी बताते है कि सिख धर्म के प्रथम गुरु नानक देव जी आज से कई सौ वर्स पूर्व इस स्थान मे आए थे। उनके अनुसार गुरु नानक देव जी उत्तराखंड के अनेक स्थानों मे घूमने,ठहरने व विश्राम करने के साथ- साथ काशीपुर मे भी रुके थे। जिस स्थान पर नानक देव ने विश्राम किया था उसी स्थान पर वर्तमान में गुरुद्वारा बना है। मान्यता है कि जिस समय नानक देव काशीपुर मे विश्राम कर रहे थे उसी समय पास मे ही बह रही नदी विकराल रूप में बह रही थी। गुरुजी के शिष्यों ने उनक्से नदी के प्रवाह को कम करने का आग्रह किया जिसपर गुरुजी ने एक धेला नदी कि और फेका। इसके बाद नदी का विकराल रूप संत हो गया और नदी का रुख भी बदल गया। इसके बाद इस नदी का नाम धेला नदी हो गया। इस घटना का उल्लेख उत्तराखंड के इतिहासकारों ने भी किया है।
आज जबकि इस इस पोथी द्वारा यह बात सिद्ध होने पर कि इस राज्य की कल्पना १९५७ मे ही कर ली गई थी। जबकि राज्य के नाम और गठन को लेकर कुछ राजनीतिक डालो में घमासान आज भी जारी है।