Saturday, February 7, 2009

पीछे छूट गई बाखली


बाखली का सरोकार पहाड़ से है जहा बसते है पहाडी। पहाड़ में बसने का ही जरिया है बाखली। बाखली जहा रहते है लोग जहा बसता है ग्राम समाज। बहुत से लोग जो बाखली से परिचित नही होंगे उनके लिए तो यह महज एक शब्द है लेकिन जो बाखली में रहते है उनके लिए यह एक छोटा सा देश होता है, अपनी सरकार, अपना शासन, काका-काकी, दादा-भौजी, इजा-बोजू और भी गाँवके कई रिश्ते नाते जिनसे कसकर बंधी होती है बाखली। बाखली का मतलब सिर्फ़ घर या पड़ोस नही होता, बाखली पहाड़ मे ग्राम समाज कि सबसे छोटी इकाई होती है, यहाँ पंचायतो कि तरह चुनाव तो नही होते लेकिन यहाँ एक घोषित अनुशासन जरुर होता है।
सच कहे तो बाखली और कुछ नही बस पहाड़ के ढलवा छतो वाले मकानों का एक सिलसिला होती है। दूर से देखने पर बाखली किसी सौकार का घर मालूम होती है, लेकिन असल में घरो के इस सिलसिले मे बिरादरों के कई परिवार रहते है। एक घर से मिलाकर दूसरा घर इस तरह से बनाया जाता है कि तीन दिवार लगाई और दूसरा घर तैयार, आम तौर पर बाखली तब बसती ही चली जाती है जब एक भाई से दूसरा भाई और पिता से बेटे अलग घर बसाते है।
बाखली भले ही एक भाई के दुसरे से या बेटो के पिता से अलग होने पर फलती फूलती हो लेकिन इससे इसका महत्व कम नही होता, क्योकि बाखली मे रहने वाले नाती नातिन तो आमा बुबू कि गोद मे ही खेलते है, इस आगन से उस आगन खेलते खेलते बच्चे कब जवान हो जाते है किसी हो पता भी नही चलता, जाडो के दिनों मे आगन मे बंधे जानवर पुवाल बिछाकर बैठे आमा बुबू ये सिर्फ़ बाखली मे ही होता है, कही आगन के किनारे पर बहु नाती को नहला रही है, तो कही बर्तन माजने कि आवाज। बाखली कि जिंदगी कुछ एसी है कि एक घर में छाछ बनी तो सबके गले से रोटी उतर जायेगी। इसी तरह से नौले धारे का ठंडा पानी एक घर में आया तो सबको मिलेगा। अगर एक घर कि गाय दूध देना बंद कर दे तो कई घरो से दूध आना सुरु हो जाता है और यह सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक गाय न ब्याह जाए। इसी तरह सुख दुःख बाटते हुए चलती है बाखली एसा नही है कि बाखली में लडाई कभी नही होती खेत कि मेड, गाय कि गौसाला , सब्जी का खेत किसी भी सवाल पर रंडी पात्तर हो सकती है।
लेकिन इन सब के बाबजूद बाखली तो बाखली ही है, जो गाँव मे रहा हो वही इसे समझ सकता है। लेकिन अब इस तरह से बाखली का बसना और आबाद होना गुजरे ज़माने कि बात हो गई है। अब तो पैसो से तय होता है कों कहा रहेगा, अगर किसी के पास थोड़ा ज्यादा पैसा है तो वह खेत मे और बेहतर पक्का मकान बना लेता है, और ज्यादा है तो शहर मे, अब बाखली सिर्फ़ उनके लिए है जो किसी कारण पैसा नही जोड़ पाए। लेकिन प्यार कभी ख़तम नही होता ना आज भी बाखली मे रहने वाले लोग उसी तरह से रहते है।

Friday, February 6, 2009

उत्तराखंड आन्दोलन का अमर सपूत निर्मल पंडित

अलग उत्तराखंड राज्य के लिए पाँच दशक तक चले संघर्ष के यू तो हजारो सिपाही रहे है, जो समय- समय पर किसी न किसी रूप में अलग राज्य के लिए अपनी आवाज बुलंद करते रहे। लेकिन इनमे से कुछ नाम ऐसे है जिनके बिना इस लडाई की कहाणी कह पाना संभव नही है।निर्मल कुमार जोशी 'पंडित' एक ऐसा ही नाम है। निर्मल का जन्म सीमांत जनपद पिथोरागढ़ की गंगोलीहाट तहसील के पोखरी गाव में श्री इश्वरी दत्त जोशी व श्रीमती प्रेमा देवी के घर १९७० में हुआ था।
जैसा कि कहा जाता है पूत के पाव पालने में ही दिख जाते है, वैसा ही कुछ निर्मल के साथ भी था। उन्होंने छुटपन से ही जनान्दोलनों में भागीदारी शुरू कर दी थी। १९९४ में राज्य आन्दोलन में कूदने से पहले निर्मल शराब माफिया व भू माफिया के खिलाफ निरंतर संघर्ष कर रहे थे। लेकिन १९९४ में वे राज्य आन्दोलन के लिए सर पर कफ़न बांधकर निकल पड़े। राज्य आन्दोलन के दौरान निर्मल के सर पर बंधे लाल कपड़े को लोग कफ़न ही कहा करते थे। आंदोलनों में पले बड़े निर्मल ने १९९१-९२ में पहली बार पिथोरागढ़ महाविद्यालय में महासचिव का चुमाव लड़ा और विजयी हुए। इसके बाद निर्मल ने पीछे मूड कर नही देखा और लगातार तीन बार इसी पद पर जीत दर्ज की। तीन बार लगातार महासचिव चुने जाने वाले निर्मल संभवतः अकेले छात्र नेता है। छात्र हितों के प्रति उनके समर्पण का यही सबसे बड़ा सबूत है। इसके बाद वे पिथोरागढ़ महाविद्यालय के अध्यक्स भी चुने गए।
निर्मल ने १९९३ में नशामुक्ति के समर्थन में पिथोरागढ़ में एक एतिहासिक सम्मलेन करवाया था, यह सम्मलेन इतना सफल रहा था कि आज भी नशा मुक्ति आन्दोलन को आगे बड़ा रहे लोग इस सम्मलन कि नजीरेदेते है। १९९४ में निर्मल को मिले जनसमर्थन को देखकर शासन सत्ता भी सन्न रह गई थी, इस दुबली पतली साधारण काया से ढके असाधारण व्यक्तित्व के आह्वान पर पिथोरागढ़ ही नही पुरे राज्य के युवा आन्दोलन में कूद पड़े थे। पिथोरागढ़ में निर्मल पंडित का इतना प्रभाव था कि प्रशासनिक अधिकारी भी उनके सामने आने से कतराते थे। जनमुद्दों कि उपेक्षा करने वाले अधिकारी सार्वजनिक रूप से पंडित का कोपभाजन बनते थे।
राज्य आन्दोलन के दौरान उत्तराखंड के अन्य भागो कि तरह ही पिथोरागढ़ में भी एक सामानांतर सरकार का गठन किया गया था, जिसका नेतृत्व निर्मल ही कर रहे थे। कफ़न के रंग का वस्त्र पहने पंडित पुरे जिले में घूम घूम कर युवाओ में जोश भर रहे थे। राज्य आन्दोलन के प्रति निर्मल के संघर्ष से प्रभावित होकर केवल नौजवान ही नही बल्कि हजारो बुजुर्ग और महिलाए भी आन्दोलन में कुढ़ पड़ी, यहाँ तक कि रामलीला मंचो में जाकर भी वे लोगो को राज्य और आन्दोलन कि जरुरत समझाते थे। पिथोरागढ़ के थल, मुवानी, गंगोलीहाट, बेरीनाग, मुनस्यारी, मदकोट, कनालीछीना, धारचुला जैसे इलाके जो अक्सर जनान्दोलनों से अनजान रहते थे, राज्य आन्दोलन के दौरान यहाँ भी धरना प्रदर्शन और मशाल जुलूस निकलने लगे। इस विशाल होते आन्दोलन से घबराई सरकार ने निर्मल को गिरफ्तार कर फतेहपुर जेल भेज दिया। राज्य प्राप्ति के लिए चल रहा तीव्र आन्दोलन तो धीरे-धीरे ठंडा हो गया लेकिन जनता के लिए लड़ने की निर्मल कि आरजू कम नही हुई। इसी दौरान हुए जिला पंचायत चुनावों में निर्मल भी जिला पंचायत सदस्य चुने गए, राज्य आन्दोलन के लिए चल रहा जुझारू संघर्ष भले ही थोड़ा कम हो गया था लेकिन खनन और शराब माफिया के खिलाफ उनका संघर्ष निरंतर जारी था। २७ मार्च १९९८ को शराब की दुकानों के ख़िलाफ़ अपने पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने पिथोरागढ़ जिलाधिकारी कार्यालय के सामने आत्मदाह किया। बुरी तरह झुलसने पर कुछ दिनों पिथोरागढ़ में इलाज के बाद उन्हें दिल्ली ले जाया गया। लगभग दो महीने जिंदगी की ज़ंग लड़ने के बाद आख़िर निर्मल को हारना पड़ा, १६ माय १९९८ को उत्तराखंड का यह वीर सपूत हमारे बीच से विदा हो गया। निर्मल कि शहादत के बाद हालाँकि यह सवाल अभी जिन्दा है कि क्या उसे बचाया जाती सकता था। सवाल इसलिए भी कि क्योकि यह आत्मदाह पूर्व घोषित था।
निर्भीकता और जुझारूपन निर्मल पंडित के बुनियादी तत्व थे, उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन माफिया के ख़िलाफ़ समर्पित कर दिया, वे कभी जुकने को राजी नही हुए, यही जुझारूपन अंत में उनकी शहीदी का भी कारण बना। अब जबकि ९ नवम्बर २००० को अलग राज्य उत्तराखंड का गठन भी हो चुका है। जिस राज्य के गठन का सपना लेकर निर्मल शहीद हो गए वही राज्य अब माफिया के लिए स्वर्ग साबित हो रहा है। शराब और खननं माफिया तो पहले से ही पहाढ़ को लूट रहे थे अब जमीन माफिया नाम का नया अवतार राज्य को खोखला कर रहा है। इसे में भला निर्मल की याद नही आएगी तो कौन याद आएगा। निर्मल का जीवन उत्तराखंड के युवाओं के लिए हमेशा ही प्रेरणा स्रोत रहेगा।

Monday, February 2, 2009

ये तो अंधेर है

इन दिनों पूरे देश में आगामी लोकसभा चुनाओ की तय्यारिया जोरो से चल रही है तो भला अपना उत्तराखंड भी कहा पीछे रहने वाला है। यहाँ भी चुनाव की दस्तक सुनाई देने लगी है। एक ओर जहा चुनाव आयोग,शासन- प्रशासन के साथ मिलकर मतदाता सूचि को अन्तिम रूप देने और चुनाव सम्बन्धी अन्य तय्यारियो में लगा हुआ है वही राजनीतिक दल भी अपने-अपने गोटे फिट करने में जुट गए है। बसपा के बाद अब भाजपा ने भी पांचो लोकसभा लिए अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए है, इधर केन्द्र में सत्ता की कमान संभाल रही कांग्रेस फिलहाल प्रत्याशी घोषित नही कर पाई है। खैर जिस दिलचस्प बात का जिक्र में यहाँ करने जा रहा हूँ उसका ताल्लुक कांग्रेस से है भी नही लेकिन भी यह सत्ता और व्यवस्था का सवाल तो है ही, दोस्तों गौर फरमाए अगर आपको याद होगा तो पिछले हफ्ते तक बीजेपी की ओर से टिहरी सीट का टिकेट एक बार फिर राजघराने के ही किसी चिराग को ही दिए जाने की बात हो रही थी, हालाँकि पिछले चुनाव में भी बीजेपी ने इस सीट से राजघराने पर ही दाव लगाया था लेकिन कांग्रेस के विजय बहुगुणा के आगे राज परिवार की चली और राजा मनुजेन्द्र शाह को हार का मुँह देखना पढ़ा। इस बार भाजपा ने इस सीट पर निशाने बाज जसपाल राणा को अपना उम्मीदवार बनाया है, वैसे जसपाल भाजपा के खेवनहार राजनाथ सिंह के रिश्तेदार भी है वरना ये तो सब जानते है कि खेलो और फिल्मो के सितारे राजनीति की बारीकिया कम ही समझ पाते है हां चुनाव जीतने कि गारंटी दी जा सकती है, लेकिन इससे जनता का जो नुक्सान होगा उसकी चिंता किसे है। फिर वापस चलते है राजघराने कि ओर इस बार बीजेपी टिहरी सीट से पूर्व महारानी टीका रानी लक्ष्मी शाह को अपना उम्मीदवार बनाना चाहती थी, इसके पीछे रानी की कोई प्रतिबद्धता या राजनीतिक अनुभव नही था बल्कि बीजेपी कि नजर रानी के बहाने उन हजारो नेपाली मूल के वोटरों पर थी जो कभी नेपाल कि राजकुमारी रही टिका रानी को अपना समर्थन दे सकते थे, लेकिन एन वक्त पर बीजेपी को अपने कदम वापस लेने पड़े असल में हुआ यह कि जिस रानी के पीछे पूरी बीजेपी लट्टू हो रही थी वह तो अब तक भारत कि नागरिक तक नही है, रानी ने विवाह के
दशको बाद तक भारत की नागरिकता नही ली है, और अब राजपरिवार का कहना है कि रानी की नागरिकता की प्रक्रिया चल रही है, एक ओर तो रानी देश की नागरिक तक नही है ओर दूसरी ओर टिहरी जिला प्रशासन की मेहरबानी तो देखो यहाँ रानी का नाम पिछले कई साल से वोटर लिस्ट मई दर्ज है, अब इस मामले के सामने आने के बाद जिला प्रशासन की आफत आ गई है, टिहरी की डीएम सौजन्या का कहना है की बिना नागरिकता के ही मतदाता सूची शामिल करना ग़लत है, इस तरह से देखा जाय तो यह मामला दोहरी नागरिकता का भी है,देश का संभिधान किसी को भी दोहरी नागरिकता की इजाजत नही देता लेकिन नेपाल की नागरिकता ओर भरत में मतदाता क्या यह मामला इस दायरे से बाहर का है, लेकिन राजघरानों पर तो इस देश के कानून लागू ही नही होते, अब सवाल यह है जब रानी इस देश की नागरिक ही नही थी तो फिर उसे मतदाता कैसे बनाया गया, साथ ही यह भी कीकिन के सहयोग से यह संभव हुआ। टिहरी जिला प्रशासन जो इस मामले में चूक कबूल चुका है,क्या राजपरिवार या अन्य लोगो के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही कर पायेगा, नही तो उस कार्यवाही का क्या मतलव जो बंग्लादेसियो ओर नेपालियों के ख़िलाफ़ की जाती है.