मान्यताओं और परम्पराओ का प्रदेश है उत्तराखंड। पहाड़ी प्रदेश में हर कदम पर बोली और दस कदम में भाषा बदल जाती है। लेकिन फिर भी कुछ परम्पराए,तीज-त्यौहार ऐसे है, जो न केवल ख़ुद को बचाए हुए है बल्कि समाज को एक सूत्र में बांधे रखने का भी काम कर रहे है। इन्ही परम्पराओं में से एक परम्परा है भिटौली। यहाँ हर साल चैतके महीने में पिता व भाई द्वारा बहिन व बेटी को भिटौली दिए जाने की परम्परा सैकडो सालो से चली आ रही है। और आज भी गावो में महिलाए चैत के महीने का बेसब्री से इंतजार करती है। उत्तराखंड में अतीत से लेकर आज तक भिटौली दिए जाने की प्रथा किसी न किसी रूप में चली आ रही है। अधिकांश पहाढ़ वासी आज भी अपनी बेटी या भाई अपनी बहिन के घर जाकर या मनीऔदर द्वारा भिटौली भेजते है। भिटौली देने का यह सिलसिला चैत के महीने भर चलता रहता है, लेकिन कई मौको पर यह बैशाख और जेठ के महीने तक भी चलता है। पर्वतीय प्रदेश दूर दराज गावो में लोग कपड़े, मिठाई, फल व विभिन्न पकवान बनाकर भिटौली डीहै। भिटौली शब्द भैटसे ही बना है। साल भर में इस महीने माँ-बाप, भाई अपनी बेटी -बहिन से अवश्य भैट करता है। कुमाऊ हो या गढ़वाल प्रारम्भ में पूरे उत्तराखंड की स्थिती ही काफी दयनीय रही है।
बुजुर्गो का कहना है किएक समय ऐसा भी हा जब यहाँ के लोगो को पेट भरने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी। हालात यह थे कि लोगो को भुना हुआ खाना साल में ख़ास त्योहारों पर ही मिल पता था। साल में एक दिन अपनी लड़की की खुसी के लिए मनाया जाने वाला यह त्यौहार धीरे-धीरे भिटौली के रूप में प्रसिध हो गया। बसंत ऋतू के उदासी वाले दिनों के बाद हिमालय की गोद में बसे इस प्रदेश में यह सौगातमय त्यौहार विशेष श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इन दिनों जहा एक ओर पहाडो की हसीं वाडिया हरियाली की चादर ताने रहती है वही देशी विदेशी परिंदे भी इस त्यौहार का स्वागत करते है । पर्वतीय भावनाओ के संगम वाले इस पर्व पर भाई अपनी बहिन और पिता अपनी पुत्री के लिए प्रेम का जो उपहार ले जाता है , वह पर्वतीय सौगात की अनुपम भैट बन जाती है, एक इसी भैट जिसमे सदियों की परम्परा समाई रहती है । लेकिन अफ़सोस की बात यह है आधुनिकता की चकाचौध और भौतिकवाद के नशे में यह त्यौहार धीरे-धीरे दम तोड़ता जा रहा है। अपनी संस्कृति और परम्परा से बिमुख लोग फैशन व धनालोभ के चलते इस पवित्र मर्यादित त्यौहार को महत्व नही दे रहे है जो पर्वतीय संस्कृति ओर परम्परा के लिए गहन चिंतन का विषय है।
खास टूर पर पहाडो से पलायन कर चुके लोग तो इस परम्परा को भूल चुके हैफिर भी सुदूर छेत्रो में यह त्यौहार आज भी उतना ही महत्व रखता है। कहना यह है कि अपनी बेटी व बहिन के लिए चेत के महीने में वगर हम एक दिन का समय नही निकाल पते तो निश्चित ही इस परम्परा का अस्तित्व खतरे में पढ़ जाएगा।
बुजुर्गो का कहना है किएक समय ऐसा भी हा जब यहाँ के लोगो को पेट भरने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी। हालात यह थे कि लोगो को भुना हुआ खाना साल में ख़ास त्योहारों पर ही मिल पता था। साल में एक दिन अपनी लड़की की खुसी के लिए मनाया जाने वाला यह त्यौहार धीरे-धीरे भिटौली के रूप में प्रसिध हो गया। बसंत ऋतू के उदासी वाले दिनों के बाद हिमालय की गोद में बसे इस प्रदेश में यह सौगातमय त्यौहार विशेष श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इन दिनों जहा एक ओर पहाडो की हसीं वाडिया हरियाली की चादर ताने रहती है वही देशी विदेशी परिंदे भी इस त्यौहार का स्वागत करते है । पर्वतीय भावनाओ के संगम वाले इस पर्व पर भाई अपनी बहिन और पिता अपनी पुत्री के लिए प्रेम का जो उपहार ले जाता है , वह पर्वतीय सौगात की अनुपम भैट बन जाती है, एक इसी भैट जिसमे सदियों की परम्परा समाई रहती है । लेकिन अफ़सोस की बात यह है आधुनिकता की चकाचौध और भौतिकवाद के नशे में यह त्यौहार धीरे-धीरे दम तोड़ता जा रहा है। अपनी संस्कृति और परम्परा से बिमुख लोग फैशन व धनालोभ के चलते इस पवित्र मर्यादित त्यौहार को महत्व नही दे रहे है जो पर्वतीय संस्कृति ओर परम्परा के लिए गहन चिंतन का विषय है।
खास टूर पर पहाडो से पलायन कर चुके लोग तो इस परम्परा को भूल चुके हैफिर भी सुदूर छेत्रो में यह त्यौहार आज भी उतना ही महत्व रखता है। कहना यह है कि अपनी बेटी व बहिन के लिए चेत के महीने में वगर हम एक दिन का समय नही निकाल पते तो निश्चित ही इस परम्परा का अस्तित्व खतरे में पढ़ जाएगा।
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